महर्षि पतंजलि प्रणीत अष्टांग योग के आसन समेत सभी अंगों को स्वामी विवेकानंद बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि योग के उच्चतर अंगों में जाने से पहले आसन का अभ्यास बहुत महत्वपूर्ण है। स्वामी जी कहते हैं, "यम और नियम के बाद आसन आता है। जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक रोज़ नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। अतएव जिससे दीर्घकाल तक एक भाव से बैठा जा सके, ऐसे एक आसन का अभ्यास आवश्यक है। जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होता हो, उनको उसी आसन पर बैठना चाहिए। एक व्यक्ति के लिए एक प्रकार से बैठकर सोचना सहज हो सकता है, परन्तु दूसरे के लिए, सम्भव है, वह बहुत कठिन जान पड़े।
स्वामी विवेकानन्द का मत है कि ध्यान-धारणा आदि के लिए सीधे बैठना अत्यन्त आवश्यक है। उनके अनुसार "आसन के सम्बन्ध में इतना समझ लेना होगा कि मेरुदण्ड को सहज भाव से रखना आवश्यक है–ठीक सीधा बैठना होगा–वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहें, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े। यह तुम सहज ही समझ सकोगे कि वक्ष यदि नीचे की ओर झुका रहे, तो किसी प्रकार का उच्च चिंतन करना संभव नहीं। वे अन्यत्र आसन के इसी रूप पर ज़ोर देते हुए कहते हैं, "आसन के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वक्षस्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे रखकर शरीर को स्वच्छंद भाव से रखना होगा।
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